'हद्द -ए -सफर'
हद्द -ए -सफर, कभी रास नहीं आती,
मैं चलता ही रहता हूँ, मगर मंज़िले पास नहीं आती।
मैं गुजरता हूँ हर रोज़, एक नयी गली एक नए शहर से, -2
ठहराता हूँ चंद लम्हात, मुझे घर बसाने की बात नहीं आती।
हद्द -ए -सफर कभी रास नहीं आती,
मैं चलता ही रहता हूँ, मगर मंज़िले पास नहीं आती।
शाम के सूनेपन से लेकर, रात की तन्हाई तक,
मैं ढूंढता हूँ बस तुझे ही, हकीकत से परछाई तक।
के देख एक मैं हूँ, जो तनहा चल नहीं पाता, -2
और एक तू है, जो कभी साथ नहीं आती।
हद्द -ए -सफर कभी रास नहीं आती,
मैं चलता ही रहता हूँ, मगर मंज़िले पास नहीं आती।।
Mahi Kumar